Monday, April 15, 2013

प्रो. रामनाथ शास्‍त्री





डोगरी भाषा के पितामह प्रो. रामनाथ शास्‍त्री  का जन्म पंद्रह अप्रैल १९१४ को हुआ था। प्रो. शास्त्री जी  के व्यक्तित्व, कृतित्व और योगदान का जिक्र करने से पहले थोड़ा पीछे जाना जरूरी है। भारत में विलय के साथ ही डोगरी भाषा ने अनदेखी सही। वह भाषा जिसको जम्मू के अलावा हिमाचल और पंजाब के साथ पाकिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर में बोला जाता है, को संविधानिक मान्यता सन २००३ में मिली। लेकिन यह सफर और लंबा हो सकता था, अगर प्रो. शास्‍त्री का योगदान नहीं होता। जिस समय डोगरी के साथ सौतेले व्यवहार की भूमिका तैयार हो रही थी, ठीक उसी समय जम्मू का एक युवा, जिसको बाद में दुनिया ने प्रो. रामनाथ शास्‍त्री के नाम से जाना, न केवल अपने लड़ाई के लिए औजार विकसित बल्कि उनकी धार भी तेज कर रहा था। प्रो. शास्त्री ने भाषा के लिए आंदोलन शुरू किया और सन १९४४ में जम्मू में डोगरी संस्था की नींव रखी। उसके बाद उन्होंने पीछे नहीं देखा और अपना पूरा जीवन डोगरी के लिए अर्पित कर दिया। सन १९५३ में उन्होंने डोगरी मैगजीन नमीं चेतना को शुरू किया। डोगरी भाषा का भविष्य बचा रहे और भाषा के विकास, प्रसार और बचाव में वुद्धिजीवियों का योगदान हो, इसके लिए जम्मू विश्वविद्यालय में डोगरी रिसर्च सेंटर गठित किया गया जिसका श्रेय भी प्रो. शास्‍त्री को जाता है। यही सेंटर बाद में डोगरी विभाग में बदला। उनके विशेष योगदान के लिए साहित्य अकादमी ने सन १९७६ में लघु कहानियों के लिए किताब ‘बदनामी दा चन्न’ और सन १९८९ में अनुवाद (मिट्टी दी गड्डी) के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया। चौबीस मार्च १९९० में उनको पद्मश्री से सम्मानित किया गया था। प्रो. शास्त्री को साहित्य अकादमी की फैलोशिप भी मिली है। जमींदारी प्रथा के खिलाफ आवाज उठाने वाले डुग्गर के महानायक किसान बाबा जित्तो के जीवन से ज्यादा से ज्यादा किसानों को प्ररेणा मिले, इसके लिए प्रो. शास्‍त्री के लिखे नाटक  बाबा जित्तो का मंचन १९४८ में उधमपुर के टिकरी क्षेत्र में आयोजित किसान सभा में किया गया। हालांकि बाद में इसी नाटक का कुछ बदला स्वरूप जिसको प्रो. शास्‍त्री ने ही लिखा था, का मंचन १९८६ में नटरंग थिएटर ग्रुप की ओर से किया गया था। नटरंग की ओर से इस नाटक के मंचन का सिलसिला आज तक जारी है।



प्रो. शास्त्री को केवल जम्मू या या डोगरी के साथ जोड़ कर देखना उनके व्यक्तित्व को कम कर के आंकना है। उनका आंदोलन और जीवन उन सभी लोगों के लिए लाइट हाउस और प्रेरणास्रोत है, जो अपनी अपनी क्षेत्रीय भाषाओं को बचाने के साथ राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने में लगे हुए हैं। शतरंज पर बिछी विरोधियों की चालों को किस प्रकार से नाकामयाब किया जाए और शांत भाव से लोगों को एकजुट कर आंदोलन को अंतिम परिणाम तक कैसे पहुंचाया जाए, यह जादू प्रो. शास्त्री के व्यक्तित्व में था। वह सभी ‘एक्टिविस्ट’ जो अपनी अपनी भाषाओं को पहचान दिलाने में लगे हैं, उनके लिए प्रो. शास्त्री के प्रयोग और तरीके रोल माडल या मैप ·की तरह काम कर सकते हैं। प्रो. शास्‍त्री मानते थे कि डोगरी भाषा के लिए भविष्य की राह आसान नहीं है। डोगरी को आठवी सूची में  मान्यता मिलने (बाइस दिसंबर, २००३) के बाद जब प्रो. शास्त्री को फोन किया गया तो उनका उत्तर था की भाषा को मान्यता मिलने से ज्यादा मुश्किल डोगरी भाषा की मर्यादा और गरिमा को बनाए रखने की है। मुश्किल डोगरी को संभालने की है। प्रो. शास्त्री जी ने हमारा साथ उस समय छोड़ा (८ मार्च, २००९) जब डोगरी चौतरफा हमला झेल रही थी। शास्त्री जी का जीवन और संघर्ष सभी उन लोगों को कुछ न कुछ करने की हिम्मत देता रहा है और देता रहेगा जो वास्तव में संघर्ष करती जुबानों के लिए कुछ करना चाहते हैं। बकौल शास्त्री ‘जिनें वीरानईए गी दिख्खी काफिले परतोई गए, अस उनें वीरानईए चां गीत गांदे आए आं’ (जिन वीरानियों को देख कर काफिले वापस लौट गए, हम उन्हीं वीरानियों में से गीत गाते हुए निकले हैं)।

2 comments:

  1. Naman! Shastri ji ke sangarsh ka pratifal kya hai kya hona chahiye yah manthan ka vishya hai. Matra bhasha ke uthtaan hetu hame anthak pryaas karne hain. Ghar se lekar shiksha sansathaano tak . Kumar jee abhaar.

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